
नीतीश की मांग पर सरकार का ठोस जवाब, जेडीयू ने हरी झंडी दी
लोकसभा में 12 घंटे की लंबी बहस, 288 बनाम 232 का वोट और एक बड़ा राजनीतिक सवाल—नीतीश कुमार की कौन-सी बात पर गृह मंत्री अमित शाह सहमत हुए कि जेडीयू का रुख बदल गया? जवाब साफ है: बिल का लागू होना पिछली तारीख से नहीं होगा। अमित शाह ने सदन में स्पष्ट कहा कि वक्फ संशोधन विधेयक 2025 के प्रावधान केवल सरकारी अधिसूचना के बाद ही लागू होंगे, यानी किसी भी संपत्ति, निर्णय या विवाद पर इसका ‘रेट्रोस्पेक्टिव’ असर नहीं पड़ेगा।
जेडीयू की आपत्ति यहीं थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पार्टी को निर्देश दिया था कि केंद्र से लिखित-स्पष्टता ली जाए कि कोई भी धारा पीछे की तारीख से लागू न हो। जेडीयू सांसद संजय झा ने सदन में याद दिलाया कि लगभग दो दशकों से नीतीश ने बिहार में मुस्लिम समाज से जुड़े मुद्दों पर काम किया है, इसलिए अनिश्चितता खत्म करना जरूरी है। पार्टी के नेता राजीव रंजन के मुताबिक, एक मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल ने अपनी चिंता सीधे नीतीश तक पहुंचाई थी, जिसे जेडीयू ने संयुक्त संसदीय समिति (JPC) में भी उठाया।
दूसरी बड़ी आशंका गैर-मुस्लिमों की भूमिका को लेकर थी। शाह ने इसे भी साफ किया—धार्मिक प्रबंधन में गैर-मुस्लिमों की कोई दखलंदाजी नहीं होगी। जहां भी गैर-मुस्लिम सदस्य होंगे, उनकी भूमिका केवल प्रशासनिक निगरानी और संपत्ति प्रबंधन तक सीमित रहेगी। मकसद दान में मिली संपत्तियों का सही इस्तेमाल सुनिश्चित करना है—लंबी अवधि के अवैध पट्टे, फर्जी ट्रांसफर या निधियों के दुरुपयोग पर रोक। इसी स्पष्टता के बाद जेडीयू ने समर्थन दे दिया और बिल पास हो गया।
ये राजनीतिक संदेश भी है। एनडीए के भीतर सहयोगी दलों की संवेदनशील चिंताओं को केंद्र ने सुना और रिकॉर्ड पर ठोस जवाब दिया। विपक्ष ने इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ बताकर निशाना साधा, तो सरकार ने पारदर्शिता, जवाबदेही और कानूनी स्पष्टता की बात दोहराई।
बिल में क्या-क्या है, किस पर कितना असर और आगे क्या देखें
वक्फ क्या है? आसान भाषा में, यह वह व्यवस्था है जिसमें कोई मुसलमान अपनी चल-अचल संपत्ति दान करता है ताकि उससे समाज-हित का काम—जैसे मदरसे, कब्रिस्तान, इमामबाड़ा, छात्रवृत्ति या राहत कार्य—लगातार चलते रहें। इन संपत्तियों का प्रबंधन वक्फ बोर्ड और उससे जुड़ी संस्थाएं करती हैं। विवाद अक्सर यहीं पैदा होते हैं—संपत्ति की रिकॉर्डिंग, कब्जा, पट्टा, आय का सही उपयोग, और ऑडिट। नया विधेयक इन्हीं कड़ियों को कसने की कोशिश करता है।
लोकसभा से पारित बिल के मुख्य प्रावधानों को एक जगह रख लें:
- वक्फ संस्थानों से वक्फ बोर्ड को अनिवार्य योगदान 7% से घटाकर 5% किया गया—छोटी इकाइयों पर आर्थिक बोझ कम होगा।
- जिन संस्थानों की वार्षिक आय 1 लाख रुपये से अधिक है, उनके लिए राज्य द्वारा नियुक्त ऑडिट अनिवार्य—खाते पारदर्शी रखने का दबाव बढ़ेगा।
- वक्फ संपत्तियों और निर्णयों की निगरानी के लिए केंद्रीकृत डिजिटल पोर्टल—दस्तावेज, दावों और कार्रवाई की स्थिति एक जगह दिखेगी।
- 2013 से पहले की व्यवस्था बहाल—कम से कम पांच साल से प्रैक्टिस कर रहे मुस्लिम अपनी निजी संपत्ति वक्फ में समर्पित कर सकेंगे।
- महिला वारिसों का अधिकार पहले—किसी भी वक्फ घोषणा से पहले बेटियों/पत्नी/मां को हिस्सा सुनिश्चित; विधवा, तलाकशुदा और अनाथों के लिए खास सुरक्षा प्रावधान।
- सरकारी संपत्ति होने के दावे की जांच कलेक्टर से ऊपर के अधिकारी करेंगे—निचले स्तर की मनमानी/विवाद पर रोक का इरादा।
- कानून Prospective होगा—अधिसूचना के बाद लागू, पुराने मामलों/समर्पणों/पट्टों पर स्वतः असर नहीं।
अब असर समझिए। 7% से 5% योगदान होने से बोर्ड की कुल आय पर कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन छोटी संस्थाओं के लिए यह राहत है। कई मस्जिद कमेटियां या छोटे मदरसे सीमित चंदे से चलते हैं; उनके लिए हर खर्च मायने रखता है। दूसरी तरफ, बड़े संस्थानों पर ऑडिट की शर्त कड़ी होगी—खाते समय पर बनेंगे, और सवाल-जवाब का लेखा सार्वजनिक रिकॉर्ड में आएगा।
डिजिटल पोर्टल सबसे निर्णायक बदलाव साबित हो सकता है। अभी फाइलें इधर-उधर, मुकदमों का ट्रैक अलग, और संपत्ति का रिकॉर्ड अक्सर बिखरा रहता है। एक केंद्रीकृत सिस्टम में परिसंपत्तियों का ब्यौरा, प्रबंधन के फैसले, पट्टों की अवधि और चल रहे विवाद एक क्लिक पर दिखेंगे। इससे दो फायदे हैं—पहला, पारदर्शिता से मनमानी कम होती है; दूसरा, नागरिकों और दानदाताओं का भरोसा बढ़ता है।
महिलाओं के हिस्से की सुरक्षा पर सरकार ने जोर दिया है। व्यवहार में अक्सर होता यह है कि परिवार की महिलाएं अपना वैधानिक अधिकार लिए बिना ही संपत्ति किसी धार्मिक/दान संस्था को दे दी जाती है। अब पहले वारिसों का हिस्सा सुनिश्चित होगा, फिर ही वक्फ समर्पण मान्य होगा। इससे विवाद घटेंगे और कानूनी प्रक्रिया मजबूत होगी।
गैर-मुस्लिमों की सीमित भागीदारी को लेकर भ्रम था। मंत्रालय ने साफ कहा—धार्मिक प्रबंधन, मस्जिदों/मदरसों के संचालन में गैर-मुस्लिमों की कोई भूमिका नहीं। जहां वे होंगे, वहां उनका दायरा केवल ऑडिट, प्रशासनिक निगरानी और संपत्ति-प्रबंधन तक रहेगा। मतलब, धार्मिक निर्णय मुस्लिम समुदाय के हाथ में ही रहेंगे, जबकि प्रशासनिक निगरानी व्यापक हित में होगी।
रेट्रोस्पेक्टिव बनाम प्रॉस्पेक्टिव का फर्क समझना भी जरूरी है। अगर कोई कानून पीछे की तारीख से लागू हो, तो पुराने सौदों/पट्टों/समर्पणों पर भी नई शर्तें थोप दी जाती हैं—इससे अस्थिरता और मुकदमे बढ़ते हैं। प्रॉस्पेक्टिव लागू होने से जो पहले हो चुका, वह जस का तस रहता है; नए फैसले नई शर्तों के तहत होंगे। जेडीयू का आग्रह यहीं था, और सरकार ने यह मांग मान ली।
राजनीतिक अर्थ भी छोटे नहीं हैं। बिहार में जेडीयू का सामाजिक समीकरण नाज़ुक है—नीतीश कुमार ने अपनी छवि ऐसे नेता की बनाई है जो विकास और सामाजिक संतुलन साथ लेकर चलता है। दूसरी ओर, केंद्र अपनी छवि मजबूत करना चाहता है कि वह संस्थागत सुधार और पारदर्शिता का एजेंडा आगे बढ़ा रहा है, बिना धार्मिक मामलों में दखल दिए। सदन में तीखी नोकझोंक के बावजूद, यही दो संदेश उभरे।
आगे की राह? लोकसभा के बाद अब नजरें राज्यसभा पर रहेंगी। नियम बनेंगे, अधिसूचनाएं आएंगी, और डिजिटल पोर्टल का रोडमैप सामने आएगा—यहीं से असली परीक्षा शुरू होगी। राज्य सरकारों की भूमिका भी अहम है—ऑडिट कैसे और कितनी तेजी से होंगे, विवादित संपत्तियों के दावे उच्च स्तर पर कैसे निपटेंगे, और बोर्ड अपनी आय-व्यय को कितनी पारदर्शिता से दिखाएंगे—इन सवालों पर अमल से फर्क दिखेगा।
अंत में, यह विधेयक दो वादों के बीच संतुलन खोजता दिखता है—धार्मिक स्वायत्तता और प्रशासनिक जवाबदेही। यदि गैर-जरूरी दखल से बचते हुए रिकॉर्ड, ऑडिट और डिजिटल ट्रैकिंग ईमानदारी से लागू होते हैं, तो वक्फ संपत्तियों का असली उद्देश्य—समाज-हित के काम—मजबूती से आगे बढ़ सकते हैं। फिलहाल, जेडीयू का समर्थन और सरकार की लिखित स्पष्टता इस दिशा में पहला ठोस कदम है।
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